आधी-अधूरी ख़्वाहिशों की दास्तान है ज़िंदगी, मुकम्मल जहान तो बस कहानियों में हासिल है . . .
ऐसी ही एक अधूरी दास्तान बंद लबों में पिरोए फिरती है माहिरा और मनन की ज़िंदगी, जिसमें मोती हैं—
मोहब्बत के इज़हार के, इकरार के, तकरार के . . . आख़िर यह दास्तान आधी-अधूरी क्यों रह गई?
देर रात एक टॉल, हैंडसम छवि बॉनफायर के दूसरी तरफ से नज़र आई, और सोढ़ी के मुँह से निकल गया, ‘ओ, चौरसिया!’
आख़िरकार माहिरा का दो दशकों से भी लंबा बेपनाह इंतज़ार ख़त्म हुआ . . . और फिर शुरू हुआ सवालों-जवाबों का, शिकवे-गिलों का सिलसिला।
वैसे मनन को इल्म था कि उसने जो किया वह क़ाबिल-ए-माफ़ी नहीं फिर भी जवाब तो उसे देना ही था, आख़िर माहिरा इसकी हकदार थी। लेकिन क्या था जवाब और क्या रहा उनका भविष्य? जानने के लिए पढ़ें, अमिता ठाकुर की कलम से निकला हिंदी पाठकों के लिए उनका पहला उपन्यास जो जज़्बातों के चक्रव्यूह में फंसाता है, निकालता है और पाठक को आख़िरी शब्द तक बांधे भी रखता है।
Imprint: Penguin Swadesh
Published: May/2024
ISBN: 9780143467007
Length : 192 Pages
MRP : ₹199.00